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स्वयं की तलाश

Writer's picture: The Feminist Times The Feminist Times

नारी ईश्वर की एक खूबसूरत, अलौकिक रचना है, जिसकी प्रतिभा, क्षमता, सुन्दरता, कोमलता,

सहनशीलता आदि ने इस सृष्टि का निर्माण किया। इसका अहसास, इसका मंथन न तो नारी स्वयं कर

सकी और न ही संपूर्ण संसार कर सका।

बचपन से यौवन तक मैं यही सोचती रही कि स्वयं को न पहचान पाना शायद नारी की अपनी

विवशता है। शिशु काल में- माता पिता का प्यार, उनके आदर्शों एवं आदेशों का पालन, यौवन में-

समाज भय, विवाह उपरान्त- ससुराल पक्ष का सम्मान, उनके उपहासों को सहर्ष स्वीकारना, लज्जा से

सिमटी हुई नारी शायद इन्ही बंधनों का पालन करते हुए अपना संपूर्ण जीवन पुरुष को समर्पित करती

है।

मैं भी पंख पसार कर उड़ना चाहती थी अपने जीवन में लेकिन बचपन से ही अपने घर के बुज़ुर्गों,

माता-पिता और समाज से यही सुनती आई कि सदैव "झुकी रहना", झुकने से ही गृहस्थी बनती है,

अच्छे संबंध बनते हैं, प्यार बना रहता है, किसी ने ये नहीं कहा कि "झुकना मत"। झुकते-झुकते मैं तो

ये भूल ही गयी कि मेरे शरीर में भी कोई रीढ़ है।

इन बातों का अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने ईश्वर की परम कृपा से प्रौढ़ावस्था में अपने पाँव रखे।

समझ में आया कि मेरे जीवन में कहाँ-कहाँ खालीपन था। मेरे अस्तित्व में कहाँ-कहाँ गैप था, मेरे

अल्हड़पन- मेरे सपनें कहाँ ओझल हो गए थे, मेरी इच्छा-अनिच्छा में कितना गैप आ चुका था। मैं

अभी भी झुकती थी पर फैसले मेरे अपने होते थे।

उस समय अपनी परिस्थितियों को बदलना मेरे वश में नहीं था। परिस्थितियां मेरे अनुकूल बन जाए

ऐसा कभी सोचा भी नहीं था।

बचपन से ही मुझे 'संगीत' से अथाह प्यार था। मैं स्वयं अपने गीत लिखकर स्वरबद्ध करती थी पर

धीरे-धीरे मेरा संगीत मुझसे कोसों दूर चला गया था। मैं पंख फैलाकर संगीत की दुनिया में उड़ना

चाहती थी किंतु घर-परिवार और समाज ने मुझे अपने बंधन में जकड़ रखा था।

वर्तमान में अपनी सभी जिम्मेदारियों को बख़ूबी निभाते हुए मेरा संगीत के प्रति प्रेम पुनः मेरे पास

लौट आया। इसमें मेरे परिवार ने मेरा पूरा साथ दिया।

आज मेरे संग मेरी प्रिय सहेलियों का एक "स्वरांजली" संगीत ग्रुप है जिसमें हम सभी अपने-अपने

गीतों को अपने स्वरों में भेजकर अनंत सुख-शांति, उत्साह और प्रेम का अनुभव करते हैं।

मेरा सोचना है कि नारी अपनी आकृति तो नहीं बदल सकती है पर अपनी प्रकृति, अपना स्वभाव,

अपनी सोच को बदल सकती है। इसके लिए सचेतन प्रयास अनिवार्य है। इसमें परिस्थितियों को कुछ

भूमिका ज़रूर है।


- मीना मोहन

एजुकेशन में पी.एच.डी


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