फेमिनिज़्म; यानि नारीवाद भारत में सबसे ज़्यादा गलत समझा गया एवं गलत मायनों में प्रयोग किया
गया है। नारीवादी होने को 21वीं सदी के भारत में बेहद दोयम दर्जे की बात माना गया और इसे उस
टैग का रूप दे दिया गया जो कोई भी खुदपर ना लगाना चाहे। पर ऐसी कौन सी वजहें हैं जिसके
कारण इस विचारधारा के प्रति इतनी ज़्यादा गलतफहमियां व रोष या नफ़रत सी पैदा हुई। सबसे बड़ी
वजह तो यही है कि आम जनमानस से लेकर शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग तक सभी ने नारीवाद के मूल
अर्थों को समझने में चूक की एवं असंख्य भ्रांतियों के आधार पर एक धारणा का निर्माण कर दिया।
नारीवाद को केवल महिलाओं का खुद को पुरुषों से बेहतर मानने के रूप में ही समझा गया। यही
समस्या का मूल कारण बना हुआ है। परन्तु नारीवादी आन्दोलन के इतिहास और सिद्धांतों को पढ़ने
के बाद एक बात जो स्पष्ट होती है वो ये है कि नारीवाद महिलाओं को किसी से बेहतर साबित करने
का पक्षधर नहीं, बल्कि यह समाज के विभिन्न स्तरों पर व्याप्त लिंग आधारित असमानताओं व
शोषणों को समाप्त कर एक ऐसे समाज के निर्माण की बात करता है जहां इंसान होना ही हम सब को
एक समान बनाता है। नारीवाद महिलाओं को पुरुषों के समान ही मूल्य देने का पक्षधर है वो मूल्य जो
किसी भी मानव का हक़ है। एवं इस दिशा में सबसे बड़ी बाधा यानि पितृसत्ता की संस्था को जड़ों से
उखाड़ फेंकना ही सही है। भारतीय समाज के हर स्तर, हर आयाम, हर संस्था, हर रिवाज़, हर क्रिया,
हर प्रतिक्रिया में पितृसत्ता के लक्षण मौजूद रहे हैं। जब तक एक लिंग यानि पुरुषों की असमान
प्रभुसत्ता समाज और महिलाओं के जीवन में बनी रहेगी तब तक स्त्री उत्थान एवं सभी लिंगों की
समानता की बातें धरी की धरी ही रह जानी है। परन्तु ये भी समझना जरूरी है कि पितृसत्ता हमारे
समाज में एक लम्बे समय से चली आ रही सच्चाई है और अब इस गूढ़ता से स्थापित संस्था को
समाप्त करना है तो यथास्तिथि में बदलाव तो होगा ही, पर ये बदलाव समाज के अधिकाँश हिस्से को
आज भी स्वीकार्य नहीं है।
अब जब बात भारत में नारीवाद एवं नारीवादी विमर्श की है तो इसके विरोध की वजहों को समझने के
साथ-साथ ये भी समझने की जरूरत है कि किन मुद्दों या आयामों पर इसमें आंतरिक रूप से खामियां
हैं। मेरे निजी नज़रिये के अनुसार भारतीय नारीवादी विमर्श एवं आधुनिक नारीवादी बहस का
समाहिकृत न होना ही इसकी सबसे बड़ी सीमितता है। मुख्यधारा का विमर्श मुख्यतः शहरी , मध्य व
उच्च वर्गों में एवं आधुनिक सामाजिक पटलों पर महिलाओं की स्तिथियों का विश्लेषण तो करता है
परन्तु बेहद ग्रामीण अंचल जहाँ एक महिला पूरी ज़िन्दगी पितृसत्ता, जातिवाद, गरीबी, महिलाओं संबंधी
मुद्दों की जानकारी के अभाव जैसी श्रृंखलाओं में जकड़ी हुई होती है, के अनुभवों और संघर्षों के
विवरण का अभाव है।
मेरी जड़ें छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव सल्धा से जुडी हुई हैं, जहां लगभग हर घर में एक औरत के
दिन की शुरुआत 4 बजे सुबह से हो जाती है। वो पूरे घर की साफ़ सफाई, पानी भरने, मवेशियों की
रोज़ाना की देखभाल, पूरे परिवार का सुबह एवं दिन का खाना तैयार करने के बाद वे अपने पुरुष
समकक्षों के साथ खेतों में काम करने या मजदूरी करने भी जाती हैं। लौटने के बाद फिर सभी सदस्यों
के भोजन की तैयारी की ज़िम्मेदारी उनपर ही होती हैं। ये दिनचर्या उन महिलाओं के जीवनभर ही
चलती है, और ऊपर से यदि परिवार के पुरुष सदस्य की नशे की लत हो तो फिर उनको घरेलू हिंसा
की तकलीफों का भी सामना करना पड़ता है। इन सब के बावजूद उन्हें समाज की हर उन रीतियों,
रिवाज़ों का पालन करना होता है जो उनकी स्तिथि को और अधिक दयनीय बनाती है। सरकार की कई
नीतियां ग्रामीण महिलाओं को उद्द्येशित करके बनी व लागू की गई है पर सवाल ये उठता है कि क्या
21वीं सदी के भारत में भी एक भारतीय ग्रामीण महिला का इतने स्तरों पर शोषण का शिकार होना
किसी भी तरह जायज़ है? मैंने हर बार उन महिलाओं की आँखों में जीवन की उमंगों को खत्म होते
देखा है, सरकार की एक नीति या एक गाँव में कुछ सकारात्मकता आ जाने भर से ही पारंपरिक रूप
से चली आ रही इन दकियानूसी पितृसत्ता का अंत संभव नहीं। हमें मुख्यधारा के नारीवादी विमर्श में
गाँव की उन महिलाओं का मज़बूत प्रतिनिधित्व एवं स्पष्ट आवाज़ की जरूरत है।
नारीवाद की यह एक महत्वपूर्ण आंतरिक खामी है, परन्तु इससे नारीवाद की आधुनिक भारतीय समाज
में प्रासंगिकता एवं उसकी ज़रूरत को ग़लत नहीं ठहराया जा सकता। नारीवाद की धूमिल छवि की एक
वजह इसको पश्चिम की एक वस्तु के रूप में देखना भी है। यह एक आम जनमत है कि खुद को
नारीवादी कहने वाला वर्ग पश्चिम की जीवनशैली से प्रभावित होकर इन धारणाओं का धारक बन रहा है
पर असल में देखा जाए तो अगर पारंपरिक रूढ़ियाँ किसी एक लिंग को दमन का शिकार बनाये रखती
हैं तो ऐसे में उन रूढ़ियों और पितृसत्ता की संस्था को समाप्त करने की बात करने में कोई हर्ज़ नहीं
होना चाहिए। नारीवाद में भले ही आंतरिक रूप से एकमतता की कमी या समाहीकरण का अभाव हो
परन्तु इसके मूल विचार एवं उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट है, लिंग आधारित असमानताओं को खत्म करना
एवं पितृसत्ता का अंत। आम जनमानस में इसे लेकर अभी गलतफहमियों को दूर करने में वक्त लगेगा
और साथ ही भारतीय समाज में मूलभूत संस्थागत सुधारों में भी। ये दोनों ही कार्य केवल और केवल
संवाद द्वारा ही संभव है, लोगों तक छोटे-बड़े हर तरह के सकारात्मक परिवर्तनों की बातों को पहुंचाना
ज़रूरी है। सिनेमा, मीडिया, सोशल मीडिया व सामाजिक बहस के कार्यक्रम इस दिशा में अच्छे माध्यम
साबित हो सकते है।
नारीवाद यकीनन ही वह अवधारणा है जिसे कभी ठीक प्रकार समझा ही नहीं गया एवं बिना नारीवादी
आन्दोलनों के इतिहास को पढ़े व अनगिनत महिलाओं के अनुभवों को समझे इसकी एक ख़ास प्रकार
की छवि बना दी गई। सबसे पहले नारीवाद की धूमिल छवि को सुधारने एवं इससे जुडी भ्रांतियों को
खत्म करना ही अत्यावश्यक पक्ष है।
- सुमन साहू
स्नातकोत्तर विद्यार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय
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